अध्यात्म-मार्तण्ड – महर्षि सदाफलदेव
पिता- राजर्षि हनुमान जी राय बाबा स्कम्भ मुनि
माता- महारानी मुक्ति देवी
देहत्याग स्थान – झूँसी, प्रयाग, इलाहाबाद।
अध्यात्म-विज्ञान में प्रवेश करने के लिए भी कुछ सामान्य पात्रताएँ चाहिए और इसी प्रारम्भिक पात्रता के लिए कुछ प्रारम्भिक पूजा-पाठ के विधान भी बनाये गये थे। इसी में स्नान करना, धूप-दीप दिखलाना, मन्त्र-पाठ करना, फूल-नैवेद्य अर्पित करना, प्रार्थना-वन्दना करना और फिर आगे बढ़कर ध्यान-साधना में प्रवेश करना आदि आते हैं। वस्तुतः ध्यान-साधना में प्रवेश करने के लिए और प्रारम्भिक पात्रताएँ निर्माण करने में इन पूजा-विधियों का किंचित् योगदान रहता है। मगर जब सद्गुरु के ज्ञान-प्रकाश में आन्तरिक साधना प्रारम्भ हो जाती है तो इन प्रारम्भिक पूजा-विधियों की उपयोगिता स्वतः कम हो जाती है। यह एक विडम्बना है कि बहुत से लोग जीवन-पर्यन्त इन्हीं प्रारम्भिक पूजा-विधियों और कर्मकांडों में उलझे रह जाते हैं और आन्तरिक साधना में प्रवेश ही नहीं कर पाते।
कोई-कोई जब पूजा के आन्तरिक-पथ पर थोड़ा आगे बढ़ते हैं तो जरा-सी उपलब्धि पर ही मंत्रमुग्ध हो उठते हैं और वहीं पर पूर्णविराम लगा देते हैं। कोई-कोई मनस्वी ही इस साधना-पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते जाते हैं और अपनी यात्रा को वहीं विराम देते हैं, जहाँ ज्ञान की पूर्णता होती है। वास्तव में ऐसे ही ब्रह्मनिष्ठ, आप्तकाम महर्षि सद्गुरु कहलाते हैं। ज्ञान के तत्त्वदर्शी ब्रह्मनिष्ठ महान् आत्मा को ही ‘सद्गुरु’ शब्द से विभूषित किया जाता है। ऐसे अध्यात्म के पूर्ण ज्ञाता सद्गुरु का मिलना ही आध्यात्मिक यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण सोपान बन जाता है।
महर्षि सदाफलदेव जी महाराज ऐसे ही ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु थे, जिनका अवतरण भाद्रकृष्ण चतुर्थी वि0 सं0 1945 [25 अगस्त सन् 1888] को उत्तर प्रदेश के बलिया जिला अन्तर्गत पकड़ी ग्राम में पिता राजर्षि हनुमान जी राय बाबा स्कम्भ मुनि, और माता श्रीमती स्व0, मुक्ति देवी के यहाँ हुआ। प्रसिद्ध सेंगर-वंशीय इस ऋषिकुल की उत्पत्ति महर्षि शृंगी से मानी जाती है, जिनके बारे में कहा जाता है कि राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ को उन्होंने ही करवाया था। महर्षि शृंगी की शादी राजा दशरथ के मित्र अंगदेश के राजा रोमपाद की कन्या से हुई थी। इसी शृंगी ऋषि और शान्ता से उत्पन्न सन्तति को सेंगर-वंश कहा गया है। महर्षि सदाफलदेव जी महाराज की पूर्व पीढ़ी में भी अनेक त्यागी सन्त-महात्मा हो चुके हैं। इनमें बाबा लालजी राव का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। इन्हीं बाबा लालजी राव की छठी पीढ़ी में महर्षि सदाफलदेव जी महाराज का अवतरण हुआ।
स्वामीजी से वार्तालाप के क्रम में पंडित जी को भान हो गया कि ये वाचक ज्ञानी नहीं हैं, इनके पास तो अध्यात्म का अनुभवपरक दिव्य ज्ञान है। जहाँ अध्यात्म-ज्ञान का सूर्य है, वहाँ शास्त्रीय ज्ञान का दीपक भला कैसे ठहर सकता है? फिर तो स्वय पंडित जी ही स्वामीजी के वचनों को सुनकर मंत्रमुग्ध हो उठे। उन्होंने स्वामीजी की प्रशंसा में एक श्लोक बना कर भी दिया। सर्वत्र स्वामीजी की जय-जयकार होने लगी। ‘सत्यमेव जयते’ चरितार्थ हो गया। इसी घटना के बाद स्वामीजी पुनः आश्रम की गुहा पर योगाभ्यास करने आ गये। वृत्तिकूट की गुहा उनकी योग-प्रयोगशाला थी। वृत्तिकूट की इस पक्की गुहा में स्वामीजी आठों याम कपाट बन्द कर साधना-रत रहते थे। पकड़ी ग्राम के ही एक सन्त श्री रामसुभग सिंह उस समय स्वामीजी की सेवा में हाजिर रहते थे। आप स्वामीजी की गुफा की खिड़की पर कभी फलाहार या दूध आदि रख दिया करते थे। मगर स्वामीजी कभी ले लेते थे और कभी ऐसे ही छोड़ भी देते थे।
स्वामीजी इस वृत्तिकूट की गुफा में अखण्ड-समाधि की अवस्था में रहते थे और किसी को दर्शन भी नहीं देते थे। इस समाधि-अनुष्ठान में स्वामीजी नित्य ब्राह्मुहूर्त में 3 बजे नित्यक्रिया करके अपनी गुफा में चले जाते थे। कभी-कभी कई-कई दिनों तक समाधि में स्थित हो ब्रह्मानन्द में निमग्न रहते थे। उस समय आपकी अन्तर्वृत्ति सदैव गुरु-मंडल में ही रहती थी। अभी जिस स्थान पर समाधि है, उसके सामने और अगल-बगल में सुन्दर बाग लगा है, वहाँ पहले एक वट वृक्ष भी था।
स्नान करने के बाद उनकी लंगोटी अभी भी सामने सूखने के लिए टंगी हुई है। बाहर इस प्रकार की बातचीत और सद्गुरुदेव के खारी में प्रकट होने की बात स्वामीजी गुफा के ऊपरी भाग में उस समय सुन रहे थे। उन लोगों की बातचीत सुनकर स्वामीजी अन्दर से खाँसे, जिसे सुनकर बाहर में लोगों को विश्वास हो गया कि सद्गुरुदेव जी गुफा के अन्दर ही हैं। अब तो खारी से आये व्यक्तियों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। स्वामीजी एक ही समय में गुफा में भी हैं और इसी समय खारी ग्राम में भी हैं, यह जानकर उन लोगों को सारी बातें एक अलौकिक चमत्कार जैसी लगीं। सद्गुरुदेव की जय-जयकार होने लगी। लोगों ने यही समझा कि महर्षि सदाफलदेव जी महाराज ही अपनी योग-शक्ति से खारी ग्राम में भी प्रकट हो गये हैं। सब स्वामीजी की ही महिमा गाने लगे। स्वामीजी इस घटना को जानकर भाव-प्रवण हो उठे। नित्य अनादि सद्गुरु की ऐसी महती कृपा से वे भाव-विभोर हो गए। स्वामीजी जान गये कि नित्य अनादि सद्गुरु-सत्ता ने उनके रूप का चयन कर उसे अपने प्रकट होने का माध्यम बनाया है।
बलिया जिले के ही ‘जवही’ स्थान पर जो गंगा के दीयर में है, स्वामीजी कुछ काल निवास किए थे। बलिया जिला अन्तर्गत बड़का खेत आदि विभिन्न स्थानों पर जो गंगातट पर है, आप तपस्यारत रहे हैं। इस तरह कुल मिलाकर करीब 17 वर्षों सत्रह वर्ष, की अनवरत साधना के पश्चात् और कई गुहा-अनुष्ठान के बाद आप पूर्णता को प्राप्त किए हैं और अध्यात्म-ज्ञान के सम्पूर्ण धरातल को स्पष्ट रूप से अपने भीतर उतार कर उस परम पुरुष परमात्मा के प्रकाश में परमानन्द को प्राप्त कर अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित हुए। अनंत श्री आचार्य धर्मचन्द्रदेव जी महाराज के शब्दों में – ‘‘…….ऐसे छः माह का या एक वर्ष का उनका गुहा-अनुष्ठान होता था।
वृत्तिकूट की गुहा में नियमबद्ध 12 [बारह] वर्ष तक निवास किए। इसके बाद अनुष्ठान रूप में गंगा के तट पर बलिया जिले में एक स्थान ….है, वहाँ पर छः मास का अनुष्ठान हुआ था। यह अनुष्ठान प्रारम्भिक काल का था। इसके अतिरिक्त बुंदेलखंड में यमुना-बेतवा के संगम पर वन में छः मास का अनुष्ठान किए थे। वहाँ आज भी आपके प्रेमी-सत्संगी हैं। पुराने शिष्य तो कालवशात् नहीं रहे। यह समय संवत् 1972 विक्रमी [ई0सन् 1915] का है। ऐसे 17 वर्ष सत्रह वर्ष, के परिश्रम के पश्चात् यह अवस्था उन्हें प्राप्त थी।’’
Ref. Article source from Apani Maati Apana Chandan, Author-Sukhnandan Singh Saday, picture source from Vihangamyoga.org, and other ref. from Swarveda. keywords Sadguru Sadafaldeo Ji Maharaj, Maharshi Sadafaldeo ji maharaj.