सच्चा संत कबीर
अवतरण– ज्येष्ठ पूर्णिमा वि0 सं0 1455
अवतरण स्थल- लहरतारा तालाब , काशी [वाराणसी]
देहावसान– वि0 सं0 1575
देहावसान स्थल– मगहर, उत्तर प्रदेश
डा0 पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने ‘निर्गुण स्कूल आॅफ हिन्दी पोयट्री’ के अपने शोध-प्रबन्ध में कबीर का साहित्यिक और आध्यात्मिक मूल्यांकन किया है। डा0 रामकुमार वर्मा और डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कबीर पर स्वतन्त्र पुस्तक लिख कर उनके साहित्यिक और आध्यात्मिक विचारों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। पंडित परशुराम चतुर्वेदी ने ‘उत्तरी भारत की सन्त परम्परा’ में कबीर के जीवन-दर्शन को समन्वयवादी बतलाने का प्रयास किया है। डा0 रामनिवास चंडक ने ‘कबीर जीवन दर्शन’ में उन्हें वेद-शास्त्रों का अनुगामी तो डा0 त्रिगुणायत ने ‘कबीर की विचारधारा’ में उनके विचारों का विश्लेषण किया है। इसके अतिरिक्त श्री केदारनाथ द्विवेदी, श्री के0 के0 भट्ट, डा0 नामवर सिंह, डा0 विद्यानिवास मिश्र, डा0 दिनेश्वर प्रसाद, श्री अरुण कमल तथा श्री पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे सुधी लेखकों ने भी कबीर के जीवन-दर्शन पर व्यापक प्रकाश डाला है। इन सभी विद्वानों ने कबीर के साहित्यिक और आध्यात्मिक पक्षों को अपनी-अपनी दृष्टि से समझाने का प्रयास किया है। इन सभी विद्वानों के प्रति अत्यन्त आदर का भाव रखते हुए मैं कहना चाहूँगा कि साधनात्मक दृष्टि रहने पर ही सन्त कबीर का सही मूल्यांकन सम्भव है। साधनात्मक दृष्टि किसी समर्थ सद्गुरु के संरक्षण में सीखी और जानी जाती है। जब तक साधना के धरातल पर कबीर की वाणियों का विश्लेषण नहीं होगा तब तक केवल साहित्यिक विद्वता से उनका उचित मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ ‘सहज योग’ का अर्थ ‘स’ यानी साथ, ‘ह’ यानी हठयोग और ‘ज’ यानी जपयोग अर्थात् हठयोग और जपयोग का साथ कहा गया है, जो साधनात्मक दृष्टि से बिल्कुल सही नहीं है। इस तरह ‘सुरति’ शब्द की व्याख्या अपने-अपने ढंग से विद्वानों ने कहीं सुन्दर-प्रेम तो कहीं स्मृति तथा ‘निरति’ शब्द की व्याख्या कहीं प्रेम-रहित तो कहीं नैरात्म शब्द से जोड़कर की है। आध्यात्मिक दृष्टि से ‘सुरति’ आत्मा की चिति-शक्ति यानी चेतन-शक्ति का नाम है और इसी चेतन-शक्ति को जब प्रकृति के प्रवाह से उलट करके परम सत्ता की ओर ले जाते हैं तो एक केन्द्र विशेष के बाद अति सूक्ष्म होने पर वह ‘निरति ’ बन जाती है और परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करती है। सन्त कबीर ने इस बारे में कहा है –